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इ॒यमु॒परि॑ म॒तिस्तस्यै॒ वाङ्मा॒त्या हे॑म॒न्तो वा॒च्यः प॒ङ्क्तिर्है॑म॒न्ती प॒ङ्क्त्यै नि॒धन॑वन्नि॒धन॑वतऽ आग्रय॒णऽ आ॑ग्रय॒णात् त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑ शाक्वररैव॒ते वि॒श्वक॑र्म॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्व॒या वाचं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒यम्। उ॒परि॑। म॒तिः। तस्यै॑। वाक्। मा॒त्या॒। हे॒म॒न्तः। वा॒च्यः। प॒ङ्क्तिः। है॒म॒न्ती। प॒ङ्क्त्यै। नि॒धन॑व॒दिति॑ नि॒धन॑ऽवत्। नि॒धन॑वत॒ इति॑ नि॒धन॑ऽवतः। आ॒ग्र॒य॒णः। आ॒ग्र॒य॒णात्। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑। त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाभ्या॒मिति॑ त्रिनवत्रयस्त्रि॒ꣳशाभ्या॑म्। शा॒क्व॒र॒रै॒व॒ते इति॑ शाक्वरऽरैव॒ते। वि॒श्वक॒र्म्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। वाच॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब हेमन्त ऋतु में किस प्रकार वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषी स्त्री ! जो (इयम्) यह (उपरि) सब से ऊपर विराजमान (मतिः) बुद्धि है, (तस्यै) उस (मात्या) बुद्धि का होना वा कर्म (वाक्) वाणी और (वाच्यः) उस का होना वा कर्म (हेमन्तः) गर्मी का नाशक हेमन्त ऋतु (हैमन्ती) हेमन्त ऋतु के व्याख्यानवाला (पङ्क्तिः) पङ्क्ति छन्द (पङ्क्त्यै) उस पङ्क्ति छन्द का (निधनवत्) मृत्यु का प्रशंसित व्याख्यानवाला सामवेद का भाग (निधनवतः) उससे (आग्रयणः) प्राप्ति का साधन ज्ञान का फल (आग्रयणात्) उससे (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) बारह और तेंतीस सामवेद के स्तोत्र (त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्याम्) उन स्तोत्रों से (शाक्वररैवते) शक्ति और धन के साधक पदार्थों को जान के (विश्वकर्मा) सब सुकर्मों के सेवनेवाला (ऋषिः) वेदार्थ का वक्ता पुरुष वर्त्तता है, वैसे मैं (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (वाचम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से युक्त वाणी को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्री पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों की शिक्षारूप वाणी को सुन के अपनी बुद्धि बढ़ावें, उस बुद्धि से हेमन्त ऋतु में कर्त्तव्य कर्म और सामवेद के स्तोत्रों को जान महात्मा ऋषि लोगों के समान वर्त्ताव कर विद्या और अच्छी शिक्षा से शुद्ध की वाणी को स्वीकार करके अपने सन्तानों के लिये भी इन वाणियों का उपदेश सदैव किया करें ॥५८ ॥ इस अध्याय में ईश्वर, स्त्रीपुरुष और व्यवहार का वर्णन करने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जानो ॥ यह यजुर्वेदभाष्य का तेरहवाँ (१३) अध्याय पूरा हुआ ॥१३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ हेमन्ते कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इयम्) (उपरि) सर्वोपरि विराजमाना (मतिः) प्रज्ञा (तस्यै) तस्याः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। (वाक्) वक्ति यया सा (मात्या) मतेर्भावः कर्म वा (हेमन्तः) हन्त्युष्णतां येन सः। अत्र हन्तेर्हि मुट् च ॥ (उणा०३.१२७) (वाच्यः) वाचो भावः कर्म वा (पङ्क्तिः) छन्दः (हैमन्ती) हेम्नो व्याख्यात्री (पङ्क्त्यै) पङ्क्त्याः (निधनवत्) निधनं प्रशस्तं मृत्युव्याख्यानं विद्यते यस्मिंस्तत् साम (निधनवतः) (आग्रयणः) अङ्गति प्राप्नोति येन तस्यायम् (आग्रयणात्) (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) त्रिनवं च त्रयस्त्रिंशं च ते साम्नी (त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्याम्) (शाक्वररैवते) शक्तिधनप्रतिपादके (विश्वकर्मा) विश्वानि कर्माणि यस्य सः (ऋषिः) वेदार्थवेत्ता (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (वाचम्) विद्यासुशिक्षान्वितां वाणीम् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः) ॥५८ ॥ अत्र लोकन्ता इन्द्रमिति द्वादशाध्यायस्थानां त्रयाणां मन्त्राणां प्रतीकानि सूत्रव्याख्यानं दृष्ट्वा केनचिद्धृतानि शतपथेऽव्याख्यातत्वादत्र न गृह्यन्ते ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि पत्नि ! य इयमुपरि मतिस्तस्यै मात्या वाग्वाच्यो हेमन्तो हैमन्ती पङ्क्तिः पङ्क्त्यै निधनवन्निधनवत आग्रयण आग्रयणात् त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ त्रिणवत्रयस्त्रिंशाभ्यां शाक्वररैवते विदित्वा विश्वकर्मर्षिर्वर्तते, तथाहं प्रजापतिगृहीतया त्वया सहाऽहं प्रजाभ्यो वाचं गृह्णामि ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - पतिपत्नीभ्यां विदुषां वाचं श्रुत्वा प्रज्ञा वर्द्धनीया तया हेमन्तर्तुकृत्यं सामानि च विदित्वा महर्षिवद् वर्तित्वा विद्यासुशिक्षासंस्कृतां वाचं स्वीकृत्य प्रजाभ्योऽप्येताः सदोपदेष्टव्येति ॥५८ ॥ अत्रेश्वरजायापतिव्यवहारस्य प्रतिपादनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये त्रयोदशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषांनी विद्वानांची शिक्षित वाणी ऐकून आपली बुद्धी वाढवावी. त्या बुद्धीने हेमंत ऋतूमध्ये कतर्व्यकर्म व सामवेदाचे स्तोत्र जाणून महान ऋषीप्रमाणे वागावे. विद्या व चांगले शिक्षण यांनी शुद्ध वाणीचा स्वीकार करावा व आपल्या संतानांना या वाणीद्वारे सदैव उपदेश करावा.